हाँफते हुए लोग / वंदना गुप्ता
ये हाँफते हुए लोगों का शहर है
जो हाँफने लगते हैं अक्सर
दूसरों के भागने / दौड़ने भर से
उठा लेते हैं अक्सर परचम
करने को सिद्ध खैरख्वाह
भाषा संस्कृति और साहित्य का
मगर
जहाँ भी देखते हैं झुका हुआ पलड़ा
झुक जाते हैं
झुका दी जाती हैं बड़ी बड़ी सत्ताएं
अक्सर अर्थ के बोझ तले
वाकिफ हैं इस तथ्य से
इसलिए
विरोध का स्वर साक्षी नहीं किसी क्रांति का
जानते हैं ये
वास्तव में तो भीडतंत्र है ये
प्रतिकार हो, विरोध या बहिष्कार
स्लोगन भर हैं
हथियार हैं इनके
खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करने भर के
असलियत में तो
सभी तमाशाई हैं या जुगाडू
ऊँट के करवट बदलने भर से
बदल जाती हैं जिनकी सलवटें
मिला लिए जाते हैं
सिर से सिर, हाथ से हाथ
और बात से बात
वहाँ
मौकापरस्त नहीं किया करते
मौकापरस्तों का विरोध, बहिष्कार या प्रतिकार
हाँफते रहो और चलते रहो
बस यही है मूलमंत्र विकास की राह का