भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाँफ़ती मंज़िलों का मकान / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने देखा है क्या
हाँफ़ती मंज़िलों का मकान
जिसकी दहलीज़ पर खड़ा
बचपन मुस्करा रहा है ?

सदियों के चरवाहे
उस चौराहे तक आए
जहाँ से इस मकान को देखा जा सकता है -
उनकी बाँसुरी के सुर
बचपन ने सुने और मुस्करा दिया;
रोशनी के पैगंबरों ने
चाँद या सूरज से
मकान को बार-बार छुआ
कि इसकी खिड़कियों में हलचल हो;
सफ़ेद बालों वाले मौसम के साथ
बार-बार आईं
जंगल की आवाज़ें
कि रातें अकेली न हों
और हाँफ़ते पाँव थमें ।
बचपन ने
इस सारी बदलती थकान को देखा
और मुस्करा दिया ।
परियों की कहानियाँ लिए
पोपले मुँह वाले बौने
और रात-भर चलने वाले नाच
जिन आँखों ने देखे हैं,
वही इस मकान को देखती हैं
और इसकी चौख़ट पर खड़े
मुस्कराते बचपन को भी ।
 
अब मकान की शहतीरें काँप रहीं हैं;
इसके जंग-लगे दरवाज़ों में
दम नहीं है
कि वे रोक सकें हवा के निर्मम झोंकों को ।
अनुभवी आँगन का तुलसीचौरा
उजड़ा-उदास
कितना पुराना है;
उस पर रखा वह दीया
आज का नहीं बुझा है;
दूधिया सरोवर से जो कमल लाया गया था
उसकी गंध किसी ताख़े में
मुरझाई पड़ी है;
कुएँ की टूटी-फूटी जगत पर
अकेला पूजा का पंचपात
धूल-मिट्टी की परतें गिन रहा है;
शंख का मुँह सूख गया है ।
 
एक उजड़ी छावनी-सा यह पल
देख रहा है
डूबती साँझ के दूसरे सिरे पर टिकी
बूढ़ी चाँदनी को |
यादों की पगडंडी पर
तोतले मुँह के निरर्थक प्रश्न चलकर आए हैं
मकान की दहलीज़ पर खड़े हो मुस्कराने ।
बचपन की मुस्कान
तलाश रही है रोशनी के सुर
जिन्हें यहीं खड़े होकर उसने सुना था ।
सफ़ेद बालों वाले मौसम ने
बचपन को छू लिया है
और मुस्कान
दीये की आखिरी लौ-सी जल रही है ।