हाँ, इसे प्रेम ही कहेंगे शायद / रश्मि भारद्वाज
हाँ, इसे प्रेम ही कहेंगे शायद
कि हमारे बीच अब नहीं है ज़रूरत शब्दों के उस सेतु की
जिस पर चलकर ही कभी
हम पहुँच पाते थे एक-दूसरे तक
आँखों के किनारों से टकराती हैं मौन की आतुर लहरें
जिसमे निर्बंध तैरते रहते हैं हम
साथ-साथ लेकिन फिर भी अलग
यह अच्छी तरह जानते हुए कि डूबेंगे नहीं
बिना एक दूसरे को लाइफ़-जैकेट की तरह पहने हुए भी।
हाँ, यह प्रेम ही तो है
कि यह जानते हुए भी कि धीरे-धीरे समय की आँच
पर सुलग रहे हैं रिश्ते
और घुल रहा है हवा में कार्बन मोनो आक्साईड
जो मुश्किल करता है साँस लेना भी
हम सँजोए रखते हैं ताज़ा हवा की उम्मीद
और बनाते रहते हैं नई खिड़कियाँ दीवारों में
ताकि शीतल हवा के झोंके कम कर सकें जलन की तासीर
और मिल सके घुटन से निजात।
इसे प्रेम नहीं तो और क्या कहेंगे
कि रोज़ टूटते सपनों की किरचों पर चल कर होते हैं लहूलूहान
फिर भी ख़रीद लाते हैं
अक्सर एक नया झिलमिलाता सपना
और सँभाल कर रख देते हैं शो-केस में
यह जानते हुए भी कि उसे भी टूट जाना है एक दिन
यों ही, कभी हमारी ही लापरवाही से
या फिर खो देनी है अपनी रंगीनियत
धूल की रोज़ ही चढ़ती मोटी परत के नीचे
उसे चमकाते रहने की तमाम कवायदों के बाद भी।
सच कहा तुमने, यह प्रेम ही होगा
कि जानते हैं, मुश्किल है साथ चलना
हम चलते रहते हैं समानान्तर
एक ही सड़क पर
बिना हाथों में हाथ डाले
क्योंकि हमारा इन्तज़ार करती ज़िन्दगी की
ब्लू लाइन बस ने
हमारा स्टॉप एक ही रखा है
और एक ही मंज़िल भी
और वो भी हमारे मशवरे पर ही
किसने कहा, प्रेम आँखों में आँखें डाले
हाथ थामे, साथ चलने का नाम है
आसमाँ नीला है और घास हरी
प्रेम इस उम्मीद के ज़िन्दा रहने का नाम है
हर उम्मीद के टूटते चले जाने के बाद भी।