भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाँ, कल ही तो / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाँ, कल ही तो
धूप हमारे घर में दिन-भर बनी रही
                                तुम आईं थीं


हमने देखा दिप-दिप होते
पूरे घर को बड़े सबेरे
जहाँ-जहाँ तुमने साँसें लीं
वहीं हुए ख़ुशबू के डेरे

हाँ, कल ही तो
आँगन ने तुलसी-चौरे की बात कही
                              तुम आईं थीं

बरसों पहले
इच्छा-वृक्ष लगाया हमने
वह फूला कल
भरी-दुपहरी तुमने फैलाया था
अपना सोनल आँचल

हाँ, कल ही तो
भीतर तक मीठी-मीठी रसधार बही
                               तुम आईं थीं

साँझ-हुए था हुआ स्वयंवर
धरती ने आकाश वरा था
अपने आँगन के बरगद का
अक्स धूप में हुआ हरा था

हाँ, कल ही तो
जो कुछ बिगड़ा था-वह सब हो गया सही
                                       तुम आईं थीं