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हाँ, मेरा-उसका लफड़ा था / अम्बर रंजना पाण्डेय

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गन्ध जापानी चेरी के फूलों जैसी आती है उसकी पीठ की
त्वचा से । कारोबार है बहुराष्ट्रीय इस समय
के । दूर निशिनोमरो वन से बनकर आई है उसके
तरल साबुन की शीशी ।
व्यायामशाला में बना हुआ

मेरा शरीर वह अपनी खिड़की से देखती रहती है
“क्या अवसन रहने का प्रण लिया है अवसान
तक तुमने ?” कवि को प्रेम
करते उसका विनोद हो गया इतना भाषिक । टीशर्ट
उतारकर गेन्द बना मैं उसकी खिड़की में फेंक

देता हूँ । गन्ध उस टीशर्ट में जापानी चेरी की नहीं, गन्ध
है पसीने की और छेद जिन्हें उसने उँगली डाल
जानबूझकर बड़ा कर दिया था । हृदय नहीं त्वचा है
शरीर का सबसे बड़ा अंग और इसी के कारण
सम्भव है प्रेम । तलवों की मृदुल और कसी हुई त्वचा
से स्तनों की त्वचा कितनी भिन्न और तुम्हारी कॉलर

की हड्डियों पर चढ़ी त्वचा कैसे मुड़ती है कन्धों में खोती
हुई जैसे अनारफल का छिलका रंग बदलता
जाता है जो हाथों में लेकर उसे घुमाओ तब । सबसे है
कोमल त्रिवली, तुम्हारे कामुक होने का पता मुझे
यही देती है ज्यों लता पर बन्धूक खिल जाता है । त्वचा में

तीर के धँसने या चाक़ू घोंपने के अनेक चित्र है
दुनिया के अजायबघरों में मगर अब तक किसी ने
देर तक हृदय स्थान की इसी त्वचा को चूसने के
बाद पड़े धब्बे का चित्र न बनाया, क्या बेधना ही सबसे
सुन्दर जैसे उन्हें बस भीतर तक धँसनेवाला
प्रेम ही श्रेय है जैसे कि स्त्री
और पुरुष के मध्य केवल कामुकता अनैतिक है ।