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हाँ, साधो, कल इसी जगह / कुमार रवींद्र

हाँ, साधो
कल इसी ज़गह
हमने दिन को छोड़ा था

दिन जो सपनों की बरात
लेकर आया था
कल्पवृक्ष के साए भी
वह सँग लाया था

यहीं कहीं पर
बँधा
आख़िरी सूरज का घोड़ा था

आँगन में पहला
गुलाब का फूल खिला था
इतर-फुलेलों का सौदागर
यहीं मिला था
 
इसी मुँडेरी पर
बैठा कल
हंसों का जोड़ा था

रात हवाओं ने हमको
पतझर से घेरा
उजड़ गया छत पर जो था
परियों का डेरा

उसी कुबेला में
सपनों ने
हमसे मुँह मोड़ा था