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हाँ, स्त्री समुद्र है / कविता भट्ट

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हाँ ,स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त
मन के भाव ज्वार-भाटा के समान
विचलित और दुःखी करते हैं उसे भी
हो जाती है जीवमात्र कुछ क्षणों के लिए।
किन्तु; पुनः स्मरण करती है; कि
वह है- प्रसूता, जननी और पालनहार
पुरुष- अपने अस्तित्व के लिए भी
निर्भर है सूक्ष्म जीव सा- इसी समुद्र पर
दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ
प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी
विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में
विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है
समेट लेती है- सब गुण-अवगुण
समुद्र के समान- प्रशान्त होकर
और चाहती है कि ज्वार-भाटा में
सूक्ष्म जीव का अस्तित्व बना रहे।
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