हाँ हाँ तुम / राकेश रंजन
भकर-भकर मूँ क्या देखती है
तुझे मालूम नहीं प्रेमी को
कैसे देखते हैं?
तू बी०ए० कैसे हो गई
तुझे पता नहीं प्रेमी हाथ पकड़े
तो दिखाते हैं नखरे?
तेरी देह से मिट्टी
पुआल
और मँजरियों की गन्ध आती है
डियो नहीं लगाती अच्छा करती है
जब तू चूमती है मेरे होंठ
हमारे होंठों के बीच न गीत होता है न अगीत
तू मेरे होठों पर खिलाती है सूर्य
टपकाती है शहद
शाम के झुटपुटे में लिपटाती है गोधूलि
पर कभी हौले से भी चूमा कर
अच्छा होंठ छोड़
यानी होंठों की बात छोड़
तू थोड़ी पातर होती तो अच्छा होता
तेरे होंठ थोड़े मोटे होते तो अच्छा होता
तू रोज़ दो चोटियाँ करती काजल लगाती तो अच्छा होता
पर कोई बात नहीं
मुझे ठीक से पकड़
मैं काठ की सिल्ली नहीं हूँ
घास का बोझा नहीं हूँ
तेरे बाबा का बाछा नहीं हूँ
मन्दिर का घण्टा नहीं हूँ मुझे ठीक से पकड़
कभी रूठ भी लिया कर
कभी ज़िद भी किया कर
चल पागल
जैसे जीती है, जिया कर
भैंस का दूध पीती है, पिया कर
हाँ हाँ तुम
बेवकूफ की दुम !