हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ, हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
मेरा कोई गीत नहीं है किसी रूपसी के गालों पर
मैंने छंद लिखे हैं केवल नंगे पैरों के छालों पर
मैंने सदा सुनी है सिसकी मौन चांदनी की रातों में
छप्पर को मरते देखा है रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
आहों की अभिव्यक्ति रहा हूँ कविता में नारे गाता हूँ
मै सच्चे शब्दों का दर्पण, संसद को भी दिखलाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।
अवसादों के अभियानों से वातावरण पड़ा है घायल
वे लिखते हैं गजरे, कजरे, शबनम, सरगम, मेंहदी, पायल
वे अभिसार पढ़ाने बैठे हैं पीड़ा के सन्यासी को
मैं कैसे साहित्य समझ लूँ कुछ शब्दों कि अय्याशी को
मै भाषा में बदतमीज हूँ अलंकार को ठुकराता हूँ
और गीत के व्यकारणों के आकर्षण से कतराता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।
दिन ढलते ही जिन्हें लुभाएँ वेशालय औ' मधुशालाएँ
माँ वाणी के अपराधी हैं, चाहे महाकवि कहलायें
अपराधों की अभिलाषाएं मौन चांदनी कि मस्ती में
जैसे कोई फूल बेचता, हो भूखी-नंगी बस्ती में
मैं शब्दों को बजा-बजा कर घुंघुरू नहीं बना पाता हूँ
मै तो पांचजन्य का गर्जन जन-गण-मन तक पहुँचाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।
जिनके गीतों कि जननी है महबूबा कि हँसी-उदासी
उनको रास नहीं आ सकते ऊधमसिंह औ' रानी झाँसी
मुझसे ज्यादा मत खुलवाओ इन सिद्धों के आवरणों को
इससे तो अच्छा है पढ़ लो तुम गिद्धों के आचरणों को
मैं अपनी कविता के तन पर गजरे नहीं सजा पाता हूँ
अमर शहीदों कि यादों से मैं कविता को महकाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ।