भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हां, इसी क्षण / विजय सिंह नाहटा
Kavita Kosh से
हाँ, इसी क्षण
पत्ती की गोद से
लो! ढुलक गया
तुषार कण
हुआ रेत में विलीन: जमींदोज।
इस समय दृश्य के भीतर मेरा होना
किस क़दर अपरिहार्य औ' असंगत है, जैसे
पल का घोर अतिक्रम
या कि निर्मल क़िस्म का ये जुर्म
पर्दा डाल देती रात जिस पर
या फिर रस-भंग नियति के बने बनाये खेल में
अच्छा ही होता ग़र बाहर होता जन्म-जनमांतर से
कभी कभी एक क्षण का इन्तजार
होता है बङा
भरे पूरे जीवन से।