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हां, वे ही शब्द / सांवर दइया
Kavita Kosh से
चौफेर पसरे अंधेरे के बीच
एक किरण उजास
यहां से वहां फैली बर्फ पिघलाने
मुट्ठी भर गरमास
घेंसले में पांखें समेटे बैठी ठीठुरती चिड़िया के डैनों के लिए
थोड़ी-सी सुगबुगाहट
बियाबान में पछाड़ें खाते सन्नाटे को पार करते समय
किसी परिचित की पद-आहट
थाली और बिस्तर के बाहर
डबडबाई आंखों की पहचान
झूठ के धधकते कीचड़ में
कमल-सा तैरता सच
बस प्रभु !
वे ही
हां, वे ही शब्द चाहिए मुझे
जिनसे अपनी यह वांछा सकूं रच !