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हाइकु -4 / विभा रानी श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
हँसती बूंदें
बूढी छतरी देख
आस तोड़ती ।
सर्पीली राहें
रंग रोशन छटा
इन्द्रधनुषी ।
बीज लड़ता
भूमि-गर्भ अँधेरा
वल्लरी देता ।
झर से झरे
मुट्ठी भर जिन्दगी
रेत सी रिसे ।
पीली चुनर
दुल्हन बनी धरा
हल्दी रस्म में ।
चनिया चोली
भू धारे सतरंगी
रचे रंगोली ।
लौटते पात
दिगंबर तरु के-
प्रवासी पूत ।
जीव का रोला
कलासी खिली वल्ली
पंक में पद्म ।
दौड़ लगाता
धावक तन्हा क्षेत्र
रक्तिम लिली।
ढूँढे ले डोरी
झांके द्वार देहरी-
व्यग्र बहना।