हाज़ी अली / श्रीप्रकाश शुक्ल
खुले आसमान में टंगे हुये लोगों के बीच
काशी की स्मृति पर ओठंघा हुआ मैं
अचानक जब जगा तब पाया कि एक मज़ार के सामने खड़ा हूँ
यह हाज़ी अली की मज़ार है
समुद्र के बीचो-बीच
समुद्र के किनारों को बचाती हुई
मुझे जानने की प्रबल इच्छा हुई
कौन थे हाज़ी अली
क्यों उन्हें कोई और जगह नसीब नहीं हई
उन्हें क्यों लगा कि उन्हें समुद्र के बीचो-बीच होना चाहिये
समुद्र के थपेड़ों को सहते हुए
कुछ ने कहा
हाज़ी अली सूफी संत थे
जो पंद्रहवीं शताब्दी में पैदा हुये थे
जिन्होंने अंग्रेज़ों के आगमन से बहुत पहले
समुद्र का चुनाव किया था
मुठ्ठी भर नमक बनकर सभ्यता में उड़ने के लिए
कुछ का कहना था हाज़ी अली ईश्वर के दूत थे
जिन्हें जब कहीं जगह नहीं मिली
तब उन्हें समुद्र ने जगह दी थी
कुछ इस बात पर अड़े थे
कि वे आधे हिन्दू थे आधे मुसलमान
आधे मनुष्य थे आधे इनसान
आधे शमशान थे आधे कब्रिस्तान
बात जो भी हो
हाज़ी अली थे
मुम्बई शहर के ठीक नीचे
काशी में अपने कबीर की तरह
जब कभी मुम्बई जाना
तो हाज़ी अली की मज़ार पर जरूर जाना
यह थके हारे मनुष्य के लिए
हमारी सभ्यता में सबसे बड़ा आश्वासन है
लगभग समुद्र की तरह ।
रचनाकाल : अक्टूबर 2007