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हाट में इकट्ठे लोग / बैरागी काइँला / सुमन पोखरेल

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आसमान को ढंकने वाले टिड्डियों के झुंड ने
अभी-अभी चाट कर छोड़ी हुई पहाड़ी नंगी चोटियाँ
खुरदी गई और जली हुई छाती में समेट कर
गुलदाउदी के फूलों को शताब्दी की छाती भर टांग कर,
मौली पर,
कोट पर, बटनहोल पर

बाजार की बंधी हुई आयतन के भीतर
बह रहे यूं ही सर झुकाकर
अनगिनत छायाओं की भीड़ के अंदर
धुंध में महायुद्धों के बारूद का
उड़ान भरते हुए...
आंधी में
आंखें...

शून्य में,
जिंदगी टूटकर लौटते हुए प्रारंभ की ओर, फिर से!

जी हाँ, एक-एक शून्य
और बस, बड़ा शून्य
बस, बड़ा तालाब शून्य का,
आंख भर!

क्रोध आता है,
लेकिन बस, क्रोध आता है,
फाड़कर मञ्जुश्री की तलवारों की तीखी अंगुलियों से
इस शून्य के तालाब को, चोभार में,

प्रत्येक दौड़ते हुए क्षण का,
फसल फला लूं हरी-भरी!
जिंदगी को!
बागमती के पानी से सिंचकर!

लेकिन क्रोध आता है!
बस, क्रोध आता है!

इतिहास घसीटता है
कमीज़ का फट जाने तक इतिहास के पन्ने के भीतर
शरीर में नग्न कर के कुरेदे हुए मानचित्र
लहू-लुहान...
हिरोशिमा का!
पराजय का साइनबोर्ड!

चिकनाए हुए दोनों सिरे सफेद और काले का,
कर्ण की मृत्यु को जानकर
षड्यंत्र से!

संगीन लेकर इधर-उधर करने वाले
आस्था के दरवानों की आंखों को छलकर, मुख्य द्वार पर
फिकी हंसी को पहरा रखकर
मुंदी हुई दृष्टि चारों ओर बुद्ध की,
मिहीरयाम के मुंह के अंदर...

बेहद जल्दबाजी में अनगिनत गर्दनों को जीतकर
कट जाने से पहले तस्लीम करता हुवा खुद... मुझ...को

मुझ को...

मुझे लगभग छूकर जाने वाला
दूर...पहुंच चुका काले मोटर के साथ
मृत्यु, आज जिंदगी के बहुत ही पास से गुजरकर चला गया!
छोटी सी दुर्घटना की छुट्टे पैसे से भी न खरीदकर,
यह जिंदगी
मृत्यु, आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!

सड़ने लगी हुई आलू में
खून बेचकर नजदीक के ब्लड-बैंक में, पैसे से
टुकड़ों-टुकड़ों में जिजीविषा को बटोरते हुए
अस्तित्व को लपेटकर कफन के झोले के अंदर
ये हाट का चक्कर मारने वाले लोगों को
लेकिन पता ही नहीं चला!

मृत्यु तो आज
जीवन के बाजार भाव की खबर ले कर निकल गया!

उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!
उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!
उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!

मुझे लगभग छू के जानेवाला
दूर...पहुंच चुका काले मोटर के साथ
मृत्यु, आज जिंदगी के बहुत ही पास से गुजरकर चला गया!

मेरे हथेली पर
बूँद खून की – यह एक क्षण!
समय की इस मोड़ पर एक पत्थर, पथरिले तट पर!

फेदांमा का भविष्य के चुजे को भोग में लगाकर छिड़का हुआ, उठा कर...
जमकर सुखा हुआ खून!
माथे पर!
दो-चार बूँदें...
शहीद की!
(जी हाँ, मृत्यु तो सम्मान है!)

एक झाड़ हरी रंग - का
यह एक ओएसिस !
उगा हुवा बालू के साथ, केवल
प्रतिबिंबित उजाले को पीकर !
पर कुचला हुआ लावारिश वातावरण में
खुल्ला ! स्वतंत्र ! निरुद्देश्य !
सूखे समय की मरुभूमि में !

चौखटे पर टंगे हुए अंगुलियों में, खिड़कीयों में,
और दरवाजे के ऊपर धरन की ओर
अपने ही क्षितिज से खुले हुए मकड़ी के जाले !

उफ् ! कितने उदास उदास जिते हैं !
उफ् ! कहीं मुक्ति भी इस तरह फिकी और उदास होती है ?

उफ् ! यह निरुद्देश्य स्वतंत्रता,
यह अकेली स्वतंत्रता,
टूटे हुए आकांक्षाओं के संघर्ष की
अपनी ही ! व्यर्थता के अंदर कैद होती है !
उफ् ! कहीं मुक्ति भी इस तरह फिकी और उदास होती है ?

दीवार दर दिवार टकराना
आसमान तक उठाई गई इन आंखों का,
कहीं आसमान न पाकर
असंतुष्ट और अपमानित ये आंखें
बीच रास्ते में ही गिर पड़ती हैं......

.....थककर !
शून्य के अंधेरे खाड़ी के अंदर,
फिर एक और अनिश्चितता की शताब्दी के अंदर!
और हाँ......
कंधे पर गिद्ध को लादकर दिल को नोचते हुए
पर पीड़ा की स्वाभाविक अनुभूति से वंचित
प्रोमेथियस की मुट्ठी में.....
सकुचाए हुए चमड़े के पत्र दर पत्र के भीतर
नजरबंद है:

मेरे भीतर:
सिर ढल चुका एक विद्रोह!
सिर ढल चुका एक विद्रोह!
सिर ढल चुका एक विद्रोह!
सिर ढल चुका एक विद्रोह!

खुद को
यद्यपि खुद को युद्ध में भेजता हूँ,
अंतर्द्वन्द्व में
(पर, केवल अंतर्द्वन्द्व में)
चटकाता हूँ भिसुभिएस और बाली को
आग की लपलपाती लहरों में फेंक देने के लिए
बुखार निकालने वाला
रोंगटे खड़ा करने वाला
धृष्टता की समानांतर रेखाएँ असहनीय
मानचित्र में जिंदगी की
और क्रोध को उभारने वाला फिकापन नपुंसकता का
बाजार में घूमते लोगों की आंखों के अंदर
इन भूरे-भूरे आंखों के सागर के अंदर......

सुखाते हैं नील नदी को हाथेली पर
समय को जमाते हैं अनस्तित्व के ढेले के अंदर
हिम-स्पर्श से श्रापित ये आंखें !

ये श्रापित आंखें
इन अनगिनत आंखों के सागर को
क्रोध आता है
(पर, बस क्रोध आता है)

लहर-लहर में तोड़कर
टुकड़े-टुकड़े लहरों के समीधा पर
दावानल भड़काने के लिए आग में,
आग! आग! आग! वडवानल!
जीवन की होम: जिंदगी के आह्वान में,

फिर, एक बार और !
बस, एक बार और !

जिंदगी में !
जिंदगी में !
जिंदगी में !

पर इस चौराहे पर
गीले छायाओं में छुपे हुए अपराधियों को
समझौते से बांध कर पैरों को
आंखों को उंडेलकर पैरों के छाप के अंदर
उंडेल चुकने पर जिंदगी को
नई सड़क के दोनों ओर
यहां-वहां भटकते हुए खाली गागर गतिहीन
इन बाजार में घूमते लोगों को

भींच कर पकड़ के आंखों में,
बहाना बनाएँ और पीट लें
तमाचे ही तमाचे से गीता के !
इस चौराहे पर......
थोड़ी देर रोककर सूरज को
कैनवास के उस किनारे पर, कुरुक्षेत्र में, जिंदगी में !

पर आक्रमण करना प्रत्येक घाटी में
और उखाड़ फेंकना प्रत्येक आंख में
मुझे निर्वासित करने वाली उदासीनता की सीमा-स्तंभ
हिम्मत न होने से खुकुरी की धार को मिटा रहा हूँ जंग के परत से
इंद्रियों को मार रहा हूँ, हरिता उगाकर मृत्यु के !
उफ् ! कितनी साधारण मृत्यु !

गोली न मिलने पर गांधी की छाती की
खरक का पेड़ न मिलने पर टुँडिखेल में
कांटे न मिलने पर येरुसलेम की गलियों में
फिर भटकता है आत्महत्या में -
यह तक्षक !

चिकनाए हुए दोनों सिरे सफेद और काला का,
कर्ण की मृत्यु को जानकर
षड्यंत्र से!

संगीन लेके इधर-उधर करने वाले
आस्था के दरवानों की आंखों को छलकर, मुख्य द्वार पर
फिकी हंसी को पहरा रखकर
मुंदी हुई दृष्टि चारों ओर बुद्ध की,
मिहीरयाम के मुह के अंदर...

बेहद जल्दबाजी में अनगिनत गर्दनों को जीतकर
कट जाने से पहले तस्लीम करता हुवा खुद... मुझ...को

मुझ को...

मुझे लगभग छू के जानेवाला
दूर...पहुंच चुका काले मोटर के साथ
मृत्यु, आज जिंदगी के बहुत ही पास से गुजरकर चला गया!
छोटी सी दुर्घटना की छुट्टे पैसे से भी न खरिदकर,
यह जिंदगी
मृत्यु, आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!

सड़ने लगी हुई आलू में
खून बेचकर नजदीक के ब्लड-बैंक में, पैसे से
टुकड़ों-टुकड़ों में जिजीविषा को बाटोरते हुए
अस्तित्व को लपेटकर कफन के झोला के अंदर
ये हाट का चक्कर मारने वाले लोगों को
लेकिन पता ही नहीं चला!

मृत्यु तो आज
जीवन के बाजार भाव की खबर ले कर निकल गया!

उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!
उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!
उफ! मृत्यु आज बाजार से खाली हाथ लौट गया!

मुझे लगभग छू के जानेवाला
दूर...पहुंच चुका काले मोटर के साथ
मृत्यु, आज जिंदगी के बहुत ही पास से गुजरकर चला गया!

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