भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाथ अपनी भूल पर कुछ तुम मलो,कुछ हम मलें / उर्मिलेश
Kavita Kosh से
हाथ अपनी भूल पर कुछ तुम मलो,कुछ हम मलें
हर तपन मिट जायेगी कुछ तुम ढलो, कुछ हम ढलें
बेवजह बनकर चटानें क्या हमें हासिल हुआ
बर्फ़ की मानिंद अब कुछ तुम गलो,कुछ हम गलें
नफ़रतों के ये अँधेरे ख़ुद ब ख़ुद मिट जायेंगे
मोम धागे की तरह कुछ तुम जलो,कुछ हम जलें
वो जो होली-ईद पर मिल बैठ के चखते थे हम
चटपटे वो जायके कुछ तुम तलो,कुछ हम तलें
मानकर बाज़ार अब भी छल रहे हैं जो हमें
क्यों न उन छलियों को अब कुछ तुम छलो, कुछ हम छलें
जो विरासत में मिली वो राह ख़ुद गुमराह थी
अब तो नूतन राह पर कुछ तुम चलो,कुछ हम चलें