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हाथ कंधे पे मेरे इक रखता था वो-पिता / मासूम शायर

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हाथ कंधे पे मेरे इक रखता था वो
इन आँखों में सब देख सकता था वो

मैं तना था उस ने ही जड़ कर दिया
मुझे कोई बरगद सा लगता था वो

रात खाँसी से उस की खफा हो गया
मेरी रातों में अक्सर जगता था वो

बस उम्मीद-ए-कफ़न है मुझ से उसे
रात मुझ को चादर से ढकता था वो

अब जवानी में सब सच लगने लगा
मेर बचपन में जो जो कहता था वो

खुद पीने पड़े तब ये खारे लगे
फिर मेरे क्यों आँसू चखता था वो

राजा होते नही आज समझा हूँ मैं
मुझे बचपन में राजा लगता था

मेरी नीदों में कोई खलल ना पड़े
पहरेदारी में था तो जगता था वो

उस के हिस्से की खुशियाँ मुझको मिलें
सर खुदा की दरों पे रखता था वो

गम क्या है जो उस को कुछ ना दिया
उम्मीदें कहाँ मुझसे रखता था वो

आज सोचा इसे तो सिहरन सी हुई
उफ्फ मेरे लिए मर सकता था वो

उन दिनों में उस को कुछ ना लिखा
बिना चश्मे के जब पढ़ सकता था वो

उस के लिए कोई मुखड़ा हूँ मैं
और मेरे लिए कोई मकता था वो