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हाथ जो उठते हैं / मार्गस लैटिक
Kavita Kosh से
हाथ जो उठते हैं एक
अधूरे धूसर को तराशने को
न हाथ मुकम्मल
न धूसर मुकम्मल!
वक्त की किताब में
हैं नक्शे भरे हुए,
उस पूरे जमाने का
जो ख्वाबीदा गुजर गया!
मगर हाँ...
तुम्हारी महफूज नींदों में
यूँ हर याद हो दफन,
जैसे जर्द चाँद में
हर बात है दफन!
फिर वो धारियों वाली
इक पुरानी सी थैली
काफी है ढोने को,
हर चीज जरूरत की...
वो नक्शे की किताब
कुछ बेर और
मुट्ठी भर रोशनी!!
अँग्रेज़ी से अनुवाद : गौतम वसिष्ठ