हाथ बढ़ाऊं तो छू न सकूं / जावेद आलम ख़ान
तुम्हारा होना मेरे लिए ठीक वैसा ही है
जैसे अंधेरी रात को जंगल में भटके मुसाफिर के लिए
जुगनू की लपलपाती रोशनी
जैसे थके तपे जिस्म पर दूर से पड़ती
सफेद झरने की महीन बूंदे
जैसे ठिठुरते पूस में खेत नराते किसान के लिए
कोहरे के आवरण से झांकता सूरज
जैसे वजू करते रोजेदार के मुंह में कुछ पल को गया
हलक को बिना स्पर्श किए लौटा कुल्ली का पानी
जैसे किसी बीमार कवि के लिए
आम के बगीचे से आती कोयल की कूक
फुलवारी में गूंजती भंवरे की गुंजार
संध्याकाल में खिड़की से चमकता नदी का गुलाबी तट
किसी पहाड़ी गाँव में शरीर को सहलाती सुखद वायु
बहुत पास आए लोग अक्सर खो जाते हैं प्रिय
मैने खूब सुनी हैं कस्तूरी मृग की बेचैनियाँ
इसलिए मैं तुम्हे बस इतने नजदीक चाहता हूँ
जहाँ से तुम्हे आसानी से निहार सकूं
और इतना दूर
कि हाथ बढ़ाऊँ तो छू न सकूं