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हाथ मार ले गए बहुत-कुछ / नईम

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हाथ मार ले गए बहुत-कुछ
छीना-झपटी, बँटवारे में।

लगे न उनके हाथ-हाथ से,
भरे हुए सानी-गारे में।

पूर्वकथाओं जैसी नीरस
हैं उनकी उत्तरगाथाएँ,
कैसे कोई आराधे ये
सबकी सब खंडित प्रतिमाएँ।

कटे अँगूठे चितर रहे हैं,
राहत के मस्टर रोलों पर-
जिनके नाम नहीं पंडों की
पोथी में या पटवारे में।

धरे हुए हैं अब तक जिनके
कंधों पर रथ इतिहासों के,
किंतु आज तक जीते आए
जीवन ये केवल दासों के।

कोख जाए कुंती के, लेकिन
सूतपुत्र सूरज के बेटे,
कर्ण अभी भी मिल जाएँगे
किसी पारधी-बंजारे में।

राजनीति कुब्जा पटरानी,
और लक्ष्मी की चालाकी,
सारी उमर सूद में काटी,
मूल अभी भी भरना बाक़ी;

देश हुए परदेश जनम से,
डंडाबेड़ी कालापानी,
इनका नहीं कोई रखवाला,
इस कटनी उस मुड़वारे में।