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हाथ में रथचक्र / ऋषभ देव शर्मा


हाथ में रथचक्र लेकर
व्यूह से लड़ने चले हो!


सामने है शक्तियाँ सारी
आचार्य सब,
जीत की खा़तिर जिन्होंने
प्राण हाथों में लिए हैं,
शीश पर अपने
कफन धारण किए हैं,

मुट्ठियों में नीतियाँ हैं कैद जिनकी
मूल्य जिनकी उँगलियों पर नाचते हैं
गालियाँ जिनकी ऋचाएँ बन गई हैं
स्वप्न में भी शास्त्र को जो
बाँचते हैं,
जो नियंता हैं हवाओं के
जो दिशाओं - दिग्गजों को
हाँकते हैं।

होंठ पर धर बाँसुरी
भूकंप से भिड़ने चले हो!


घिर रहा है घोर अँधियारा
अनय-अन्याय का,
भूमि पर सारी
चिताएँ जल रही हैं,
युद्धजीवी महाप्रभु की वासनाएँ-
रक्त पीकर पल रही हैं
पीव पीकर फल रही हैं।

लाल आँखों को निकाले
लाल जबडे़ कड़कडा़ती
लाल जिह्वा लपलपाती
कालिमा के पर्व में
खुद कालिका सी
स्नान करके
रक्त में
उन्मत्त हो
कर छल रही हैं

स्वर्ण के अन्धे असुर की योजनाएँ।

अंजुली भर गंध लेकर
ध्वंस से अड़ने चले हो!


यह मिटाने की लडा़ई,
जय-पराजय की नहीं है;
हम खडे़ हैं मोड़ पर,

यह बिंदु है बदलाव का
यह बिंदु है भटकाव का
यह बिंदु है बहकाव का।

आज अर्जुन भी नहीं है
दिन छिपे तक कृष्ण भी
वापस नहीं होंगे.

धर्मपुत्रों से नहीं उम्मीद कोई,

जबकि चढ़ती आ रही सेना
अधर्मी,
घिर रहा तम हर तरफ से
ज्योति को बंदी बनाने के लिए।

साजिशों में कैद है
आकाश अपना,
किंतु आँखों में अभी है शेष
सपना।

सर्प-फण पर दुग्ध-उज्ज्वल
कील हम जड़ने चले हैं!


[हाथ में रथचक्र लेकर
व्यूह से लड़ने चले हैं!]!