भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाथ / बुद्धदेब दासगुप्ता / कुणाल सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने हाथों के बारे में हमेशा तुम सोचते थे
फिर एक दिन सचमुच ही तुम्हारा हाथ तुमसे गुम गया।
हाय, जिसे लेकर तुमने बहुत कुछ करने के सपने पाले थे गालों पे हाथ धरकर
पागलों की तरह दौड़-धूप की, न जाने कितने दिन, कितने महीने, कितने साल —
पागलों की तरह सर पीटते-पीटते फिर एक दिन तुम्हें नीन्द आ गई ।
बहुत रात गए तुम नीन्द से जागकर खिड़की के आगे आ खड़े हुए
खिड़की के पल्ले खुल गए
अद्भुत्त चान्दनी में तुमने देखा एक विशाल मैदान में सोए हें
तुम्हारे दोनों हाथ। एकसार बारिश हो रही है हाथों के ऊपर, और
धीमी-धीमी आवाज़ करते हुए घास उग रही है हाथों के इर्द-गिर्द ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह