हाथ / हरिऔध
बीज बोते रहे बुराई के।
जो बदी के बने रहे बम्बे।
जो उन्हें देख दुख न लम्बे हों।
तो हुए हाथ क्या बहुत लम्बे।
घिर गये पर जब निकल पाये नहीं।
तब रहे क्या दूसरों को घेरते।
आप ही जब फेर में वे हैं पड़े।
हाथ तब तलवार क्या हैं फेरते।
खोल दिल पर-धन लुटाता है सभी।
कौन निज धन दान दे यश ले सका।
वह भले ही फूल बरसाता रहे।
फूल कर के हाथ फूल न दे सका।
मान उनको न चाहिए देना।
जो मिल मान फूल हैं जाते।
जब न पाते रहे भले फल तो।
क्या रहे हाथ फूल बरसाते।
खेलने में बिगड़ बने सीधे।
फिर लगे बार बार लड़ने भी।
वे रहे कम नहीं बने बिगड़े।
हाथ अब तो लगे उखड़ने भी।
देस-हित-राह पर चले चमका।
जम इसी से न पाँव पाया है।
जातिहित पर जमे जमे तो क्यों।
हाथ में तो दही जमाया है।
तन पहन कर जिसे बिमल बनता।
चाहिए था कि वह बसन बुनते।
जब बिछे फूल चुन नहीं पाये।
हाथ तब फूल क्या रहे चुनते।
काम जब देते न गजरों का रहे।
जब कि काँटों की तरह गड़ते रहे।
जब भले बने थे भला करते नहीं।
तब गले में हाथ क्या पड़ते रहे।
है खिला कौर पोंछता आँसू।
ले बलायें उबार लेता है।
दूसरे अंग हो दुखी भर लें।
साथ तो एक हाथ देता है।
लाख उस के साथ उस को प्यार हो।
मन रुचि किस काल होनी नेन की।
कौन चारा हाथ बेचारा करे।
जो न पहुँचा तक पहुँच पहुँची-सकी।
क्या मिला बरबाद करके और को।
क्यों लगा दुखबेलि सुख खोते रहे।
हाथ तो हो तुम बुरे से भी बुरे।
जो बुराई बीज ही बोते रहे।
हाथ! सच्ची बीरता तो है यही।
सब किसी के साथ हित हो प्यार हो।
बीर बनते हो बनो बीर तुम।
क्यों चलाते तीर औ तलवार हो।
हाथ देखो बने न बद उँगली।
वह बदी से रहे सदैव बरी।
कुछ कसर कोर है नहीं किस में।
हो बुराई न पोर पोर भरी।
हाथ कोई काम तू ऐसा न कर।
आबरू पर जाय जिससे ओस पड़।
तब करेंगे क्यों न ठट्ठा लोग जब।
जाय गट्टे के लिए गट्टा पकड़।
हों कलाई में जड़ाऊ चूड़ियाँ।
हाथ तो भी तुम न होगे जौहरी।
उँगलियों में हों अमोल अंगूठियाँ।
मूठियाँ मणि मोतियों से हों भरी।
दान के ही जो रहे लाले पड़े।
जो उखेड़े ही किये मुरदे गड़े।
हाथ तब तुम क्या बड़े सुन्दर बने।
क्या रहे पहने कड़े मणियों-जड़े।
जो लुभाता कौड़ियालापन रहा।
हाथ तुम को फ़ैलना ही जब पड़ा।
क्या किया कंगन रुपहला तब पहन।
तब सुनहला किस लिये पहना कड़ा।
ढोंग रचते क्या भलाई का रहे।
जब बुराई का बिछाते जाल थे।
किस लिए माला रहे तब फेरते।
जब मलों से हाथ मालामाल थे।
वह सका दुख न जान छिंकने का।
जो गया है कहीं नहीं छेंका।
क्यों कलेजा न काढ़ वह लेवे।
हाथ है आप बे-कलेजे का।
पीसते क्यों किसी पिसे को हो।
और की सोर क्यों रहे खनते।
है न अच्छा कठोरपन होता।
हाथ तुम हो कठोर क्यों बनते।
चाहिए था बुरी तरह होना।
बेतरह ढाहते सितम जब हो।
लाल मुँह जब हुए तमाचों से।
हाथ तुम लाल लाल क्या कब तबहो।
हाथ को काम तो चलाना था।
क्यों न फिर ढंग-बीज वे बोते।
क्या करें रह भरम न सकता था।
हैं इसी से नरम गरम होते।
हाथ लो मनमानती मेहँदी लगा।
या बनो मल रंग कोई गाल सा।
पर तमाचे मार मत हो लाल तुम।
लाल होने की अगर है लालसा।
जाय छीनी मान की थाली तुरत।
औ उसे अपमान की डाली मिले।
रख सकी जो जाति मुख-लाली नहीं।
धूल में तो हाथ की लाली मिले।