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हादसे कुछ इस कदर गुज़र गए हैं / रेणु हुसैन
Kavita Kosh से
हादसे कुछ इस कदर गुज़र गए हैं
हम खुद एक वाक़या बन के रह गए हैं
जो तरन्नुम में बात करते थे
वो लब हिलाने से डर रहे हैं
जो छाया था हम पे सैलाब की तरह
हम उसके लिए एक तस्वीर बन के रह गए हैं
अब बादल औ’ बारिश की क्या औकात
हम टूट के बह चुके हैं वो टूट के बरस चुके हैं
अपने आईने में भी उनकी सूरत नज़र आती है
हर चीज़ पे वो अपना अक्स छोड़ गए हैं
लाज़मी है एक उम्मीद पे ज़िन्दगी गुज़र जाए
वो सरमाया है मेरा, हम उनके दर पे आ गए हैं