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हाय, आँसुओं के आँचल से ढँक नत आनन / सुमित्रानंदन पंत

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हाय, आँसुओं के आँचल से ढँक नत आनन
तू विषाद की शिला, बन गई आज अचेतन,
ओ गाँधी की धरे, नहीं क्या तू अकाय-व्रण?
कौन शस्त्र से भेद सका तेरा अछेद्य तन?

तू अमरों की जनी, मर्त्य भू में भी आकर
रही स्वर्ग से परिणीता, तप पूत निरंतर!
मंगल कलशों से तेरे वक्षोजों में घन
लहराता नित रहा चेतना का चिर यौवन!
कीर्ति स्तंभ से उठ तेरे कर अंबर पट पर
अंकित करते रहे अमिट ज्योतिर्मय अक्षर!

उठ, ओ गीता के अक्षय यौवन की प्रतिमा,
समा सकी कब धरा स्वर्ग में तेरी महिमा!
देख, और भी उच्च हुआ अब भाल हिम शिखर
बाँध रहा तेरे अंचल से भू को सागर!