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हाय चील / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
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					हाय चील, 
हाय सुनहरी चील!
और मत रोओ तुम, 
इस भीगी दोपहरी में,
नदी के ऊपर उड़ती हुई।
तुम्हारी ये वेदनामयी चीखें, 
याद दिलाती है मुझे 
उन म्लान आँखों की, 
थी तो जो रूप की राजकुमारी, 
पर चली ही गई 
समेट कर अपने सौन्दर्य को, 
क्यों बुलाती हो उसे फिर से?
क्यों फिर से जगाना चाहती हो वही वेदना,
छेड़ कर जख्म दिलों के?
हाय चील, 
हाय सुनहरी चील!
और मत रोओ तुम, 
आँसुओं से नम इस दोपहरी में,
नदी के ऊपर उड़ती हुई।
 
	
	

