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हाय प्रतीक्षा कि पीड़ा में इंद्रधनुष ना भाये / रंजना वर्मा

हाय प्रतीक्षा कि पीड़ा में इंद्रधनुष ना भाये।
किंतु करूं क्या मुझ अभागिनी के प्रियतम ना आये॥

कुछ दिवसों की गये बता कर बीते वर्ष अभागे
मेरी शुष्क हथेली रेखा भाग्य नहीं क्यों जागे?
नयनों में है मिलन वेदना गत सपनों के रेले
हो कब सूनी मन बगिया में अरमानों के मेले?

गिन गिन कर पल युग सम मैंने राहें देख बिताये।
किंतु करूं क्या मुझ अभागिनी के प्रियतम ना आये॥

दिन बीते पंखुड़ियों से झर, राते गिन-गिन तारे
मिलन स्थल पर हैं टिके हैं थके न दृग पथ हारे।
आशा डोर हो रही दुर्बल हो जाये कब जर्जर
उन्मन मन की पीड़ा कह दे मिले न ऐसे अक्षर।

उम्मीदों की बगिया का हर सुमन सूखता जाये।
किंतु करूं क्या इस अभागिनी के प्रियतम ना आए॥

अश्रु मौक्तिकों की सुंदर माला शृंगार बनी है
मन के कोने अभी दमकती नन्ही आस कनी है।
जब तक साँस आस ना टूटे अमर बनेगी धड़कन
व्याकुल तन मन माँग रहे हैं संस्पर्शों की सिहरन।

कब प्रिय आयें कहीं न आए ऐसा हो यह मन मुरझाये।
हाय करूं क्या इस अभागिनी के प्रियतम ना आए॥

तरस रही प्रिय आलिंगन को आतुर तपती बाहें
जला रही है रोम-रोम अब मूक सुलगती आहें।
कब तक नयन प्रतीक्षा रत यह देखें राह तुम्हारी
कब तक भोले मन की साधें भटका करें कुंवारी?

वैरी मौसम फिर तन मन में विरह अनल दहकाये।
किंतु करूं क्या इस अभागिनी के प्रियतम ना आये॥