हाय / पं. चतुर्भुज मिश्र
हर सुबह लहू से लथपथ है, हर शाम अनय से काली है ।
मानवता लगता लुप्त हुई, अब दानवता की पाली है ॥
यह कैसा पवन प्रवाहित है ।
कण-कण में भीति समाहित है ।
शव की सीढ़ी मनुपुत्र चढा-
क्या पाने को लालायित है ।
चेतना शून्य जड़ जीव बना, बुद्धि विवेक से खाली है ।
हर सुबह लहू से लथपथ है, हर शाम अनय से काली है।
खेतों में उगते छल प्रपंच ।
सिंचित हो हो कुक्चिारों से ।
शहरों में बंटते द्वेष द्वन्द-
अभिसिक्त स्वार्थमय नारों से ।
अंकुरण बंद अनुराग नेह, रसहीन यहाँ हरियाली है।
हर सुबह लहू से लथपथ है हर शाम अनय से काली है ।
माता का
आंगन मुरझाया।
गुमसुम गुलाब बेकल बेली ।
गुंजन परिवर्तित क्रंदन में-
गायब तितली की अठखेली ।
हर ओर काल का गाल बढ़ा, हर ओर लपकती ब्याली है।
हर सुबह लहू से लथपथ है, हर शाम अनय से काली है।