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हारा हुआ / मृत्युंजय प्रभाकर
Kavita Kosh से
हज़ारों साथियों के बीच से निकल
दूसरी दुनिया की ओर क़दम बढ़ा रहा
वह चमकता तारा
हारा हुआ है
मन की सांकल बजती है
बेतरतीब
बेहिसाब
जब हमें उसी दुनिया में छोड़
कोई आगे बढ़ जाता है
कितना हारा हुआ
महसूस होता है तब
क्या हम
जो पीछे छूट गए
हारे हुए हैं?
या हारे हैं वे
निकले जो हमारे बीच से
यह सवाल समानुपातिक महत्व का है
और जवाब एक गोलाकार बिंब
जिसकी परिधि पर नाचता है यथार्थ
यह जानना बेमानी है
कि निकलने वाला
ज़िदगी की दौड़ में आगे निकल गया
या छूट गया पीछे कहीं
लहुलुहान
कलेजे के हूक से उभरी टीस
कहाँ देख पाती है
यह दुनियावी अंतर।
रचनाकाल : 12.07.08