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हारे थके परिन्दों से कहती है शाम कुछ / ‘अना’ क़ासमी

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हारे थके परिन्दों से कहती है शाम कुछ
सब कट चुके हैं पेड़ करो इन्तिज़ाम कुछ

सीने में एक हूक सी उठती है जब कभी
धोख़े से खा लिया था ज़रा सा ह़राम क़ुछ

कुछ तो किसी की बात में पड़ता नहीं हूँ मैं
रोके है इस ज़बाँ को तिरा एहतराम कुछ

पहले कभी कभार कहीं बैठते थे हम
हर शाम अब तो होने लगा एहतमाम कुछ

जाँ की अमान पाऊँ तो इक बात मैं कहूँ
तलवार ले चुके हैं तुम्हारे ग़ुलाम कुछ

मौक़ा महल को देख के बोला करो जनाब
रक्खा करो ज़बान में अपनी लगाम कुछ

किन बेवक़ूफियों में पड़े हो मियाँ ’’अना ’’
छोड़ो भी शायरी को करो काम धाम कुछ