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हार की ग़ज़लें बहुत परवाज़ / नईम
Kavita Kosh से
हार की ग़जलें बहुत परवाज़ होतीं,
जीत के मिसरे पड़े गुमनामियों में।
हम हमारी जान लें इतना बहुत है,
दूसरों की जानकर भी क्या करेंगे?
आएगी जब राहचलते मौत बाहम,
बामशक्कत कै़द में अपनी मरेंगे।
नियति के चौकस थपेड़ों की कहें क्या?
हो गए गु़मनाम हम नाकामियों में।
एक हो तो बता भी दें बेझिझक हम,
लड़ रहे जिन मोर्चों पर रात औ दिन,
मौसमों जैसे दुआरों पर न आए,
बरसते सावन, सुलगते हुए फागुन।
जंगलों से कमर बाँधे हमेशा लड़ता रहा,
पर हारता ही रहा मैं आबादियों में।
कब, किसे मंज़िल मिली है इस जनम में,
किंतु राहें हैं नहीं क्वाँरी अछूतीं।
अनगिनत पदचिन्ह उछरे हर क़दम पर,
हाँ, किसी की भले बोली हो न तूती।
कर न पाए हों भले तीमारदारी
हाथ मेरे हैं नहीं बर्बादियों में।