हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िन्दगी / शैलेन्द्र सिंह दूहन
बाधा भी है मंजिल भी है चलना भी है ज़िंदगी,
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।
ये सूनी सेजों की हिचकी यादों का आलिंगन है
ये केशव से बिछुड़ी राधा अभिसारों का निधिवन है,,
गागर भी है सागर भी है अमर गीत ये लहरों का
अँधियारों से लड़ना भी है टलना भी है ज़िंदगी
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।
विश्वासों की सौरभ है ये टूटी-बिखरी आशा भी
तूफानों से लड़ने वाले तिनके की परिभाषा भी,
आदर्शों की भूलभुलैया ठाले पन की पीड़ा ये
खुद ही अपना चाट पसीना फलना भी है ज़िन्दगी
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।
चिंता की उकलाई है ये भावों का है भोलापन
टूटे सपनों की माला ये हर इच्छा की है धड़कन।
घूँघट भीतर नीर भरी ये आँखों की है नीरवता
बाँट उजाले बाती की ज्यों जलना भी है ज़िन्दगी।
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।
दीपशिखा से लिपट शलभ की मिटने वाली रीत यही
नेह निभाते टूटे दिल की हारी होड़ पुनीत यही,
है चातक की करुण टेर ये बादल की लाचारी भी
संग हवा के चलना भी है पलना भी है ज़िन्दगी।
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।