हाला / हरिवंशराय बच्चन
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
१.
जग ने ऊपर की आँखों से
देखा मुझको बस लाल-लाल,
कह डाला मुझको जल्दी से
द्रव माणिक या पिघला प्रवाल,
जिसको साक़ी के अधरों ने
चुम्बित करके स्वादिष्ट किया,
कुछ मनमौजी मजनूँ जिसको
ले-ले प्यालों में रहे ढाल;
मेरे बारे में है फैला
दुनिया में कितना भ्रम-संशय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
२.
वह भ्रांत महा जिसने समझा
मेरा घर था जलधर अथाह,
जिसकी हिलोर में देवों ने
पहचाना मेरा लघु प्रवाह;
अंशावतार वह था मेरा
मेरा तो सच्चा रूप और;
विश्वास अगर मुझ पर,मानो--
मेरा दो कण वह महोत्साह,
जो सुरासुरों ने उर में धर
मत डाला वारिधि वृहत ह्रदय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
३.
मेरी मादकता से ही तो
मानव सब सुख-दुःख सका झेल,
कर सकी मानवों की पृथ्वी
शशि-रवि सुदूर से हेल-मेल,
मेरी मस्ती से रहे नाच
ग्रह गण,करता है गगन गान,
वह महोन्माद मैं ही जिससे
यह सृष्टि-प्रलय का खेल-खेल,
दु:सह चिर जीवन सह सकता
वह चिर एकाकी लीलामय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
४.
अवतरित रूप में भी तो मैं
इतनी महान,इतनी विशाल,
मेरी नन्हीं दो बूंदों ने
रंग दिया उषा का चीर लाल;
संध्या की चर्चा क्या,वह तो
उसके दुकूल का एक छोर,
जिसकी छाया से ही रंजित
पटल-कुटुम्ब का मृदुल गाल;
कर नहीं मुझे सकता बन्दी
दर-दीवारों में मदिरालय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
५.
अवतीर्ण रूप में भी तो है
मेरा इतना सुरभित शरीर,
दो साँस बहा देती मेरी
जग-पतझड में मधुऋतु समीर,
जो पिक-प्राणों में कर प्रवेश
तनता नभ में स्वर का वितान,
लाता कमलों की महफिल में
नर्तन करने को भ्रमर-भीड़;
मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय !
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
६.
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.
कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
७.
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;
यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;
बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय .
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
८.
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में--
मानव के बंदीगृह निश्चय.
जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.
मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
९.
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;
उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
१०.
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी !
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल--
मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
११.
लघुतम गुरुतम से संयोजित --
यह जान मुझे जीवन प्यारा
परमाणु कँपा जब करता है
हिल उठता नभ मंडल सारा !
यदि एक वस्तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी वस्तु सभी,
त्रैलोक्य बिना जलहीन हुए
सकती न सूख कोई धारा;
सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा क्षय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !