हाल सुना फ़सानागो, लब की फ़ुसूँगरी के भी / फ़िराक़ गोरखपुरी
हाल सुना फ़सानागो, लब की फ़ुसूँगरी<ref>जादूगरी</ref> के भी
क़िस्से सुना उस आँख के जादू-ए-सामिरी के भी।
काबा-ए-दिल में हैं निशाँ, कुछ फ़ने-आज़री<ref>मूर्ति-कला, आज़र प्रसिद्ध पैग़ंबर इब्राहीम के चाचा थे, जो मूर्तिकला में निपुण थे</ref> के भी
बारगहे-इलाह<ref>ईश्वरीय सभा</ref> में, जल्वे हैं क़ाफ़िरी के भी।
तुर्फ़ा तिलिस्मे-रंगो-बू, चेहरे की ताज़गी भी है
कितने अजीब राज़ हैं, ज़ुल्फ़ों की अबतरी के भी।
अहले-नज़र है बेपनाह, शाने-जमाले-आदमी
गुम हों हवास हूर के, होश उड़ें परी के भी।
धोके न बन्दगी के खा, सिजदा-ए-इश्क़ पर न जा
नासिया-ए-नयाज़<ref>भक्ति का माथा</ref> में, जलवे हैं दावरी के भी।
हुस्ने-रुख़े-नज़ारासोज़, देख सका न तू जिसे
ढूँढ उसी में रंगो-नूर, आईना-परवरी के भी।
तू कि है मुनकिरे-अवाम<ref>जनता को न मानने वाला</ref>, हैं जो अभी तेरे ग़ुलाम
तेवर उन्हीं में देख आज रोबे-सिकन्दरी के भी।
बह्रे- हयात से न डर, उससे न ढूँढ तू मफ़र
तुझको यही सिखायेगा, राज़ शनावरी के भी।
पूछ न मुझसे हमनशीं, तुर्फ़ागी-ए-दिले-ग़मीं
साज़े-सिकन्दरी के भी, सोज़े-कलन्दरी के भी।
मिस्ले-फ़क़ीरे-बेनवा, फिरते हैं जिनको हम लिये
हाँ, उन्ही झोलियों में हैं राज़ तवनगरी के भी।
सर भी झुका चुका है इश्क़, हुस्न के पाये-नाज़ पर
नाज़ उठा चुका है हुस्न, इश्क़ की ख़ुदसरी के भी।
रात तेरी निगाहे-नाज़ कितने फ़साने कह गयी
ग़मज़ा-ए-क़ाफ़िरी के भी, उशवा-ए-दिलबरी के भी।
शोले उठे ज़मीन के देख, करिश्मे ऐ निगाह
उसके ख़रामे-नाज़ के, फ़ितना-ए-सरसरी के भी।
पढ़ कभी आयते-शफ़क़, क़ल्बो-नज़र का वास्ता
जल्वा-ए-रंगरंग में, रंग पयम्बरी के भी।
छेड़ दिया ग़ज़ल में आज मैंने वो नग़्मा-ए-ज़मीं
उठ गये घूँघट ऐ ’फ़िराक़’, ज़ुहरा-ओ-मुशतरी<ref>शुक्र और बृहस्पति</ref> के भी।