हाशिया / संतोष कुमार चतुर्वेदी
जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबादी
हाशिये की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गयी जगह हाशिये वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ-न-कुछ जाने अंजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
पहले-पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से
अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिये की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्ना तभी लगा होगा इतना दीप्त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला-खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशियाँ
हाशिये में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छन्द जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्व चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से
कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी-कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें
और अक्सर अपने ही समानान्तर
बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से
एक सभ्यता द्वारा छोड़े गये हाशिये को
किसी जमाने में सजा-संवार देती है
कोई दूसरी सभ्यता
लेकिन कहीं-कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिये
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढा यह दिशा निर्देश
कृपया पर्याप्त हाशियाँ छोड़ कर ही लिखें
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिये ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीनकर
कॉपियाँ जाँचे जाने के वक्त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आयी है हाशिये की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है
हमसे भूल गयी बातों
चूक गये विचारों
और छूट गये शब्दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्सर काम आता है
यह हाशियाँ आज भी
हाशिये को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्द
भरी गयीं पंक्तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्ने की शक्ल
अपठनीय हो गयी
वाक्यों की सूरत।