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हाशिये पर कुछ हक़ीक़त कुछ फ़साना ख़्वाब का / शाहिद माहुली
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हाशिये[1] पर कुछ हक़ीक़त कुछ फ़साना ख़्वाब का
एक अधूरा-सा है ख़ाका[2] ज़िंदगी के बाब का
रंग सब धुँधला गए हैं सब लकीरें मिट गईं
अक़्स है बे-पैरहन[3] इस पैकर-ए-नायाब[4] का
ज़र्रा-ज़र्रा दश्त[5] का माँगे है अब भी खूँ-बहा[6]
मुँह छुपाये रो रहा है क़तरा क़तरा आब[7] का
सांप बन कर डस रही हैं सब तमन्नाएँ यहाँ
कारवाँ आकर कहाँ ठहरा दिल ए बेताब का
कोह-ए-तन्हाई[8] का शाहिद ज़र्रा-ज़र्रा टूटना
पारा-पारा हो गया है अब जिगर सीमाब का