हाहाकार / कल्पना लालजी
सम्बन्ध
टूटती दीवारों से
सर्वत्र चटक रहे हैं
झाडफनुस
सदियों पहले के
मानों अब भी लटक रहे हैं
बोझा उन पर रिश्तों का लादे
हम सदियों से भटक रहें हैं
शोर कहीं चीखों का नित-नित
मानवता को नोचे
दर्द और सन्नाटों के बीच
क्यों बालक बिलख रहे हैं
प्रश्नचिन्ह
पल प्रतिपल आकर
नींदों से चौँका जाते
सूनसान पड़े अहाते सारे
रौशन कैसे कर पाते
आसमान से उल्काओं की
मानो वर्षा होती
धरती अपनी फूटी किस्मत को
आज न बैठी रोती
कलियुग है
शंका भला थी किसको
किन्तु अंत होगा ऐसा
आशा कहाँ थी किसको
आज यहाँ तो कल वहां
अनगिनत प्रकोपों का साया
भीषण प्रलय
हाहाकार
क्यों धरती पर घिर आया
महाकाल
हुआ क्या तुझको
तेरी भूख न क्यों मिट पाती
लाखों और करोड़ों तक की
गिनती भी कम पड़ जाती