हिंडोला / बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
आओ, बलिहारी जाऊँ, तुम झूलो आज हिंडोला,
मैं झोटे दूँ, तुम चढ़ जाओ, झूले पे अनबोले।
मेरी अमराई में झूला पड़ा रसीला, बाले,
चँवर डुलाते हैं रसाल के रसिक पर्ण हरियाले,
रस-लोभी अलिगण मँडराते हैं काले भौंराले,
सूना झूला देख उभर आते हैं हिय में छाले,
आओ, पेंग बढ़ाओ झूला की तुम हौले-हौले,
सजनि, निछावर हो जाऊँ, तुम झूलो आज हिंडोले!
भोली सहज लाल-मोहकता निज नयनों में घोले,
आकर सुहरा दो मेरे हिय के सुकुमार फफोले,
आन कंपा दो इस झूले की रसिक रज्जु की फाँसी
मेरी उत्कंठा को, सुंदरि, डालो गलबहियाँ-सी,
क्वासि? क्वासि? प्यासी आँखों से बरस रहीं फुहियाँ-सी
आ जाओ मेरे उपवन में सजनि, धूप-छहियाँ-सी
झुक-झुक, झूम-झूम, खिल जाओ हृदय ग्रंथियाँ खोले,
आओ बलिहारी जाऊँ, तुम झूलो आज हिंडोले।