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हिंदसागर हुए जा रहे नेत्रजल / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

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रीतते हैं मगर खत्म होते नहीं,
हिन्दसागर हुए जा रहे नेत्रजल।

बैठकर घूमते थे कभी काँध पर,
गाँव की हर डगर, हर गली, बस्तियाँ।
आज कंधे वही हैं मगर झुक गए,
जीर्ण होने लगीं दिन-ब-दिन अस्थियाँ।
थे तुम्हारे लिये जो पले स्वप्न वे-
अश्रु के सँग जाने गए कब निकल!

रीतते हैं मगर खत्म होते नहीं,
हिन्दसागर हुए जा रहे नेत्रजल।

आजकल स्वप्न में बस यही दिख रहा,
तुम यहीं थे! अचानक हुए लापता।
भागता जा रहा हूँ, कि ढूँढूँ तुम्हें,
तुम मिले डाल पर, प्राण था झूलता।
थे सजल नेत्र द्वय, स्वप्न टूटा हुआ,
हो गया एक क्षण में, सबल से विकल!

रीतते हैं मगर खत्म होते नहीं,
हिन्दसागर हुए जा रहे नेत्रजल।

आत्महत्या अगर है समाधान तो,
प्रिय! बताओ तुम्ही अब कि मैं क्या करूँ?
पुत्र का पिण्ड-दानी कहाना कठिन,
कह सको तो कहो, मैं जियूँ या मरूँ?
हल निकलता अगर प्रश्न का मृत्यु से-
तो कहो सृष्टि है प्रश्नमय क्यों सकल?

रीतते हैं मगर खत्म होते नहीं,
हिन्दसागर हुए जा रहे नेत्रजल।