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हिंदी का समारोह गीत / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
करते है तन मन से वंदन जन -गण -मन की अभिलाषा का
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधान अपनी भाषा का
यह अपनी शक्ति - सर्जना के
माथे की है चंदन रोली
माँ के आँचल की छाया में
हमने जो सीखी है बोली
यह अपनी बँधी हुई अंजूरी, यह अपने महके शब्द सुमन
यह पूजन अपनी संस्कृति का, यह अर्चन अपनी भाषा का
अपने रत्नाकर के रहते
किसकी धारा के बीच बहें
हम इतने निर्धन नहीं कि
वाणी से औरों के ऋणी रहें
इसमे प्रतिबिंबित है अतीत, आकर ले रहा वर्तमान
यह दर्शन अपनी संस्कृति का, यह दर्पण अपनी भाषा का
यह उँचाई है तुलसी की
यह सूर - सिंध की गहराई
टंकार चंदबरदाई की
यह विद्यापति की पुरवाई
जयशंकर का जयकार, निराला का यह अपराजय ओज
यह गर्जन अपनी संस्कृति का, यह गुंजन अपनी भाषा का