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हिंसा / कुसुम जैन
Kavita Kosh से
हिंसा की भाषा
बड़ी सख़्त
बड़ी भारी
और
ऎंठी हुई होती है
मृत
शरीरों की तरह
फिर भी
कोई इसे
न दफ़नाता है
न जलाता है