भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हिज़रत / रियाज़ लतीफ़
Kavita Kosh से
न पूछ मुझ से
कि जंग, लश्कर,
सिसकते पत्थर,
फ़ज़ा के आँसू
हवा के तेवर
ये राएगानी
बिखरते मेहवर
ये सारे क्यूँ कर ?
कि रफ़्ता रफ़्ता,
मैं सख़्त जानी की डालियों से लचक पड़ा हूँ
गुज़र चुका हूँ मैं हर कहानी की हद से बाहर
पड़ा हुआ हूँ मैं अपनी मआनी की हद के बाहर !!