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हिज़्र के साये / शिव रावल

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हिज़्र के साये दूर तलक और मैं,
दौड़ती-सी परछहाई दूर तलक और मैं,
वो तुझ-सा कोई सहलाता इस वीराने में,
जब दबे पाँव कमरे में आई तन्हाई और मैं,

मेरे जाम से जब यादों की मय छलक गयी,
तलाशा तुझ वायज़ पर तूँ नज़र न आई और मैं,
बैचैन सिसकता रहा मैं अँधेरों के दरमियाँ
वो शमा दहकती नज़र ना आई जब परवाने को तो मैं,
घबरा के अब पी ही जाता हूँ ये बादा के
उन्हें तो फिर भी आ जायेंगे ख्वाब मनचाहे
मुझे ग़र नींद ना आई तो फिर कहाँ जाऊँगा ए 'शिव' मैं