हिजाब-ए-राज़ फ़ैज़-ए-मुर्शिद-ए-कामिल से उठता है / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'
हिजाब-ए-राज़ फ़ैज़-ए-मुर्शिद-ए-कामिल से उठता है
नज़र हक़-आश्ना होती है पर्दा दिल से उठता है
जला जाता हूँ बार-ए-सोज़-ए-ग़म मुश्किल से उठता है
वो अश्कों से नहीं बुझता जो शोला दिल से उठता है
कहाँ ख़ंजर भी दस्त-ए-नावक-ए-क़ातिल से उठता है
नज़ाकत से हिना का बार भी मुश्किल से उठता है
से किस ने डाल दी बहर-ए-तलातुम-ख़ेज़ में कश्ती
ये शोर-ए-हर्चे-बादा-बाद क्यूँ साहिल से उठता है
कशीदा जिस से तुम होते हो कोई रूख़ नहीं करता
गिराते हो नज़र से तुम जिसे मुश्किल से उठता है
ये आँसू कस्म-पुर्सी किस के मातम में बहाती है
जनाज़ा आज किस का कूचा-ए-क़ातिल से उठता है
मगर तासीर पैदा हो गई मजनूँ के नालों में
कि पर्दा आज दस्त-ए-लैला-ए-महमिल से उठता है
रूख़-ए-बे-पर्दा उन का याद आता है शब-ए-हिज्राँ
हिजाब-ए-अब्र जब रू-ए-मह-ए-कामिल से उठता है
लगा दी आतिश-ए-ख़ामोश क्या सोज़-ए-मोहब्बत ने
इलाही ख़ैर दूद-ए-आह-ए-सोज़ाँ दिल से उठता है
किया शर्मिन्दा इतना सख़्त-जानी ने नज़ाकत से
ख़जालत से सर उन के सामने मुश्किल से उठता है
कलेजा थाम लें दीदार-ए-जानाँ देखने वाले
बस अब पर्दा रूख़-ए-रश्क-ए-मह-ए-कामिल से उठता है
चले अहबाब आग़ोश-ए-लहद में छोड़ कर मुझ को
कि हम-दर्दी का जज़्बा पहली ही मंज़िल से उठता है