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हिज्र को तीरगी से ख़तरा है / सुमन ढींगरा दुग्गल
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हिज्र को तीरगी से ख़तरा है
वस्ल को रौशनी से ख़तरा है
मौत का नाम यूँ ही है बदनाम
जीस्त को जीस्त ही से ख़तरा है
आप सबसे क़रीब हैं मेरे
बस मुझे आप ही से ख़तरा है
तेरा हर रंग बेअसर मुझ पे
पर तेरी सादगी से ख़तरा है
बिन तुम्हारे न आँख भर जाए
हम को अपनी हँसी से ख़तरा है
कल तलक़ जिस के हम मुहाफिज़ थे
आज हम को उसी से ख़तरा है
हर तरफ बेहिसी का है आलम
यानि सब को सभी से ख़तरा है
आज रो रो के फिर सहर होगी
ये 'सुमन' शाम ही से ख़तरा है