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हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ / विद्या विन्दु सिंह

सुलगती धूप सी महका रही हवाएँ।
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

हिन्दी का पानी बहुत पानीदार है,
रखें किसी पात्र में लेती आकार है।
अमर बेल सी पसर फैलाती लताएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

सरल मना हिन्दी बाँचती, फिरती पीर,
अँगुल भर आस को बना द्रौपदी चीर।
हिन्दी के हाथ ही दुःशासन थकायें॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

सच की बानी है, स्वप्न की कहानी है,
सुनती सबकी, अपने मन की रानी है।
कहे राधा रागबोध, कृष्ण की कलाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

भीष्म की प्रतिज्ञा है, सत्य धर्मराज का,
दायित्व राष्ट्र का, धर्मबोध आज का।
हिन्दी है सुविधा, हम कहीं भी जाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

भू से पाताल तक, हिन्दी का मूल है,
भारत का बीजमन्त्र, सुरसरि-कूल है।
यही सिंधु, जहाँ भाषा नदियाँ समायें॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

हिन्दी अनुराग है, भाव रंग-राग है,
सावनी फुहार है, कान्हा का फाग है।
भाषा, धर्म, जाति की तोड़े सीमाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

आसेत हिमालय से कन्याकुमारी तक,
अण्डमान निकोबार कालापानी तक।
हिन्दी का ‘नव परिमल’ सुगन्ध बिखराएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥