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हिन्दी / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
कहो ठाठ से मैं ठेठी हूँ, देशी हूँ, क्या शक है
मैं हिन्दी का चरम उपासक, जिसके बल पर जीऊँ
अपना सुख-दुख फटा-पुराना इससे ही तो सीऊँ
क्या बतलाऊँ, इससे रिश्ता कितनी दूर तलक है ।
हिन्दी में बोलूं, तो लगता सीधे हिन्दुस्तानी
इसके पद से, क्रिया-विश्लेषण से जन्मों का नाता
यह अव्यय है, क्रिया जगत की, प्रत्यय , मेरी माता
मेरे लिए सभी कुछ सच है, तुमको लगे कहानी ।
अपनी कथा-कहानी अपनी भाषा में जँचती है
टीक कटाने से कोई अंगरेज नहीं बन जाता
अपनी माटी, आग, सलिल से बनता कोई विधाता
बुढ़िया दादी को मनौन । क्या और चीज पचती है ?
ग्रीष्म काल में गंध केतकी की है हिन्दी भाषा
औंटे हुए दूध में मिस्री, जिसमें घुला बतासा ।