हिन्नें   लोढ़ी   हुन्नें   पाटी,   सकर   कन्न   बीजू    बन्न।
देखी  अयलौं  शहरो  केॅ   भी,  गांवोॅ  केॅ तेॅ  देखले छै
के   बचैतै  दोनों   केॅ ? संहार  दोनों    के   लिखले   छै
झुट्ठे  हल्ला  छेलै  कि  लोगोॅ   केॅॅ  चैन   छै  शहरोॅ   मेॅ
प्राण उठै  छै  अमरित   मेॅ  भी,  नै  खाली  ई  जहरोॅ   मेॅ
खून-खराबी,     कोर्ट-कचहरी,     मोॅर-मोकदमा     रोजे-रोज
खून  करै  छै  कौनें   केकरोॅॅ, पुलिस  करै  छै  केकरोॅ खोज
हरदम्मे   छाती    सें   सटलोॅµ  छूरा-बन्दूक   की-की   नै
कना रहै छै तौ पर भी सब ? काका, लोग वहाँ करोॅ धन्न ।
गाँवों    में  की   सुख   छै  काका ? वहेॅ  डकैती  मारे-पीट 
बड़का  मैलकोॅॅ  के  हौ  जूता,  आरो  हमरोॅ  खुल्ला   पीठ
शहरे  हेनोॅ  मारबोॅ-काटबोॅ,  औरत   के   इज्जत  सें  खेल 
बीच-बचाव   करोॅ   तेॅ   काका,  उल्टे   जैभा   थाना-जेल
पुजते  रहोॅ  जिनगी   भर,  फेरू  ई  सोॅर-सिपाही केॅ
के  चाहै  छै भोगै  लेॅ ई  नरक, कहोॅ नी । चाही केॅ ?
बोलोॅॅ माथा  कहाँ बचाय  लेॅ जैभा, कक्का ! शहरोॅॅ में ?
दोनों  तरफें पथरे राखलोॅॅ,  सोची  केॅॅ हम्में  छी  सन्न ।
सब  जग्घोॅ  के  एक्के  रं लोग, सब  जग्घोॅ के  एक्के हाल
काँटोॅ गाछ  मेॅ  काँटे  जादा होय छै, जोॅड़   रहेॅ  या डाल
निकलोॅ  नै  गल्ली -कुच्ची  मेॅ,  निकलोॅ   नै  चैराहा  पर
की  काका  विश्वास  करै   छोॅ,  ई   लोगोॅ   बौराहा   पर
नै   बूझे   छै   प्रेम-दया   कुछ,   धोॅर-धरम के   बातें   की
जे  साथी  रास्ता   में   लूटेॅ,  ऊ   साथी   के   साथे  की
मारी दै  कि   काटी  दै,  पर  केॅॅहै लेॅ  नै  छोड़वै  ई  कि
आय सुरच्छा ओतनै महगोॅॅ-जतना  की महगोॅ छै अन्न ।