हिमयुग / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
कुछ थम रहा है
आसपास मँडराती
शून्य होती आवाज़ो से
ज्वालाओं से ज्वलन्त सवाल
सिकुड़ने लगे हैं मुर्दनी शीतलहर से
ठंडक मिज़ाज़ में ज़रूरी है
पर। ये किसने कहा
कि। ठंड इन्तेहाई तरीक़े से जज़्ब कर लो
मौतों पर ठहाके लगाओ
यूँ जज़्बातों का बर्फ़ीला हो जाना
जानते हो
ग्लेशियर की संख्या में
लगातार इज़ाफा कर रहा है
देखो इस तरह की सर्द आवाजों का असर
सदियों पर भारी न पड़ जाए
ऐसी सदाओं से जब साँसे भी जम रहीं हैं तो।
कहीं थम न जाए सर्जन
अब तो
सागर भी सतही तौर पर गुनगुना हो गया है
कहीं।
सूरज का ताप भी ज़मीन को छू कर सर्द हो गया तो
शुरू होने से पहले जीवन थम जाएगा।
मस्तिष्क पर गर्म हवाओं के थपेड़ों से
कुंद होती बुद्धि जड़ नहीं हो पाती
लगातार ठंडे होते जिस्मों पर हरारत भी रखो थोड़ी सी
नहीं तो।
हिमयुग को फ़ैलने से कैसे रोक पाओगे
सुनो! कुछ सम्वेदनाओं से
कुछ गर्म आँसुओं से
बर्फ़ की तासीर को बचा भी लो न!