हिमालय के प्रथम दर्शन / तरुण
सामने-पाताल-सी गहराइयाँ;
फिर उनमें से क्रमशः उभरतीं
देवदारु के पेड़ों की घनी कतारें-
दृष्टि के विस्तार-जैसी लम्बी;
फिर, ऊपर भूरे-कत्थई रंग की उभरती शैल-श्रेणियाँ;
फिर, सिलहटी-नीली शैल-श्रेणियों की सीमान्त तट-रेखाएँ;
और सबसे परे, आगे, ऊपर-
गिरिराज के अधरों की हल्की-गाढ़ी हँसी-
बर्फीली, शुभ्रोज्ज्वल!
और, ऊपर, चमकीले विराट गोल-सुडौल
उलटे-कटोरे-से लटके नीलाकाश में-
झीनी-श्वेत मेघ जालियाँ, मलमली चादरें, तार-तर फटीं;
कीं दूध लुढ़क गया है, कहीं चाँदी के वर्क-से उड़ रहे;
हिमालय गम्भीर निद्रा में लीन है, मौन रहो,
विक्षेप न करो-कैसे-कैसे सपने आ रहे हैं!
शांति...
लो, वे नींद में मुस्कराये-देवता...
देवदारुओं की ठंडी छायाएँ,
हौले-हौले बहतीं उनींदी हवाएँ,
मरकत-सी हरियालियाँ!
रोमांच! आत्म-विस्मृत मैं!
1954