भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हिमालय (कविता) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
Kavita Kosh से
हिमालय (कविता)
सोह रहा हे आज हिमालय शान्त मेध- सा
जिसमें जमक र नील हुई हो उज्जवल बरसा
तट रेखाये जिसकी, दीप्त हंसी से उजली
करती हो पीछे छिप - कौंध कर बिजली।
पडी रात सपनों से भरी गगन की पलकें
नव बसन्त में ज्यों माधवी-लता की अलकें
भर- भर जाती हैं मुकुलों से औ फूलों से
उड़ी प्रभा दिन की खेतों से सरि- कूलों से
(हिमालय कविता से )